विदेश

जहन्नुम-ए-अफगान

Sudarshan Kendre
28 Dec 2022 1:45 PM GMT
Jahannum-e-Afghan
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Jahannum-e-Afghan

अफ़ग़ानिस्तान: तालिबान द्वारा अफगानिस्तान पर एक हाथ से सत्ता स्थापित करने के बाद इस देश का पासा पलट गया है। देश का विकास चक्र अचानक थम गया है, लेकिन महिलाओं का जीवन नर्क बन गया है। तालिबान द्वारा अफगानिस्तान में सत्ता पर कब्जा करने के बाद, उन्होंने झूठे वादे किए कि महिलाएं इस्लामी कानून के ढांचे के भीतर पढ़ और काम कर सकेंगी।

तालिबान ने एक प्रगतिशील तस्वीर पेश करने की कोशिश की, कि यह पुराना तालिबान नहीं, बल्कि नया तालिबान है, इसलिए महिलाओं के अधिकारों से समझौता नहीं किया जाएगा। लेकिन, धीरे-धीरे तालिबान ने अपना असली रंग दिखा दिया है,और अपनी महिलाओं की सही कीमत का सबूत दे दिया है। कुछ दिनों पहले महिलाओं के लिए माध्यमिक और उच्च माध्यमिक शिक्षा बंद करने के बाद तालिबान ने एनजीओ में काम करने वाली महिलाओं के सामने मोर्चा खोल दिया था। उसका परिणाम पीड़ित बच्चे और महिला पर होगा,जो बड़ी मात्रा में सहायता निधि से वंचित रहैंगे।

तालिबान शुरू से ही महिलाओं की शिक्षा, उनके अधिकार और आजादी के खिलाफ था। इसलिए, तालिबान के सत्ता में आने के बाद, महिलाओं को उनके पुरुष रिश्तेदारों के बिना यात्रा करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। यहाँ की महिलाओं के तो नशीब में पहले से ही बुरखा लिखता,और उसमें विश्वविद्यालयों में छात्र-छात्राओं की पढ़ाई को किसी तरह अस्पताल की तरह पूरा किया गया। हालांकि, तालिबान ने महिलाओं की माध्यमिक शिक्षा पर एक पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया, जिसमें कहा गया कि महिला विश्वविद्यालय के छात्रों ने नियमों का पालन नहीं किया,और पुरुष छात्रों के साथ बातचीत की। यानी महिलाएं घर से बाहर न निकलें, सिर्फ चूल्हा और बच्चे की देखभाल करें तो क्या, तालिबान का यही उद्देश्य है। अब इसमें 'एनजीओ' के लिए काम करने वाली महिलाओं को जोड़ा गया है। इन विदेशी 'एनजीओ' के लिए अफगानिस्तान और विदेशों की हजारों महिलाएं काम कर रही थीं।

एक स्थानीय होने के नाते, लोगों के साथ अपनी भाषा में संवाद करना, उन्हें चार चीजें समझाना और आम तौर पर सहायता प्रदान करना अपेक्षाकृत आसान था। लेकिन, अब इन महिलाओं को भी तालिबान द्वारा काम करने से इस आधार पर रोका जाता है,कि वे इस्लामिक कानूनों का पालन नहीं करती हैं। इसलिए 'सेव द चिल्ड्रन', 'नॉर्वेजियन रिफ्यूजी काउंसिल', 'केयर' जैसे एनजीओ ने अफगानिस्तान में अपना काम बंद कर दिया है। इतना ही नहीं तालिबान ने तालिबान के आदेशों का उल्लंघन करने वाले एनजीओ का लाइसेंस रद्द करने की धमकी भी दी है। इस का परिणाम अफगानिस्तान में जरूरतमंद लोगों के लिए उपलब्ध मानवीय सहायता पर होगा। इन 'एनजीओ' ने इस संभावना का अनुमान लगाया है,कि खाद्यान्न और कपड़े जैसी महत्वपूर्ण आवश्यकताओं की सहायता पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

वास्तव में इन 'एनजीओ' को अफगानिस्तान में एक आशा की किरण के रूप में देखा गया था। क्योंकि जहां सरकारी सहायता दूर-दूर तक नहीं पहुंच पाती थी, वहां विदेशियों के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र के स्वयंसेवकों के माध्यम से सहायता का निरंतर प्रवाह होता रहता था। लेकिन तालिबान के इस फैसले से विदेशों से मिलने वाली सहायता का प्रवाह भी रुख जायगा और तब अफगानिस्तान की महिलाओं और बच्चों की असली परीक्षा होगी। दरअसल, अफगानिस्तान की करीब दो हजार महिलाएं विदेशी 'एनजीओ' में काम कर रही थीं। इन 'एनजीओ' के वेतन से ही इन महिलाओं के परिवार का भरण-पोषण होता था। लेकिन, अब यह महिला अचानक बेरोजगार हो गई है,और उसके परिवार के जीवन पर संकट खड़ा हो गया है।

'ओआईसी' समेत कई मुस्लिम देशों ने तालिबान के इस फैसले का विरोध किया है और इस फैसले पर पुनर्विचार करने की सलाह दी है। लेकिन, तालिबान के मुस्लिम 'उम्माह' में शामिल होने की संभावना भी कम है। इसलिए, जहां सऊदी अरब अगले कुछ वर्षों में मध्य पूर्व में यूरोप बनाने का सपना देख रहा है, वहीं तालिबान ने अपने महिला विरोधी फैसलों से अफगानिस्तान को मध्यकाल की गहरी खाई में धकेल दिया है। इसलिए, मुस्लिम देशों में एक ही धर्म के भीतर इस तरह की अत्यधिक विसंगतियां अभी भी चिंता का विषय बना हुआ हैं।

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