क्यों निकाली जाती है कांवड़ यात्रा? जानें क्या है पैराणिक मान्यता

सावन का महीना 25 जुलाई से शुरू हो रहा है। जुलाई के महीने को कावंड़ियों का महीना भी कहा जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि भगवान शिव के भक्त इस महीने कांवड़ यात्रा निकालते है। मान्यता है कि ऐसा करने से भावगाव शिव भक्तों की मनकामनाएं पूरी करते है। लाखों श्रद्धालु हर साल कांवड़ में गंगाजल लेकर भगवान हो अर्पित करते है। लेकिन इस बार कोरोना महामारी के चलते कांवड़ यात्रा पर रोक लगा दी गई है।
कांवड़ यात्रा शुरू करने से पहले श्रद्धालु बांस की लड़की पर दोनो ओर जलपात्र रखते है। जलपात्र में गंगाजल भरकर बांस ने बने कांवड़ को अपने कंधे पर रखकर नंगे पैर पैदल ही भगवान शिव के मंदिर तक जाते है। इस यात्रा को कांवड़ यात्रा और यात्रियों को कांवड़िया कहा जाता है। इस दौरान कांवड़ को जमीन पर नहीं रखा जाता है। शिव मंदिर पहुंचने के बाद उस गंगाजल से भगवान शिव का जलाभिषेक किया जाता है।
- क्यों निकाली जाती है कांवड़ यात्रा?
पौराणिक कथाओं के अनुसार सबसे पहली बार इस मान्यता को भगवान परशुराम ने जन्म दिया था। भगवान परशुराम सबसे पहले गढ़मुक्तेश्वर से गंगा का जल कांवड़ में लेकर बागपत जिले के पास 'पुरा महादेव' गए थे। वहां पर उन्होंने भोलेनाथ का जलाभिषेक किया था। उस वक्त श्रावण मास चल रहा था। तब से ही यह भोलेनाथ के भक्त इस परंपरा को निभाने लगे।
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- कांवड़ यात्रा के नियम
इस दौरान भक्तों को गंगाजल भरने से शिवलिंग पर अभिषेक करने तक का एक साधु की तरह रहना होता है। यात्रा के दौरान साधा भोजन खाना होता है। तली भुनी चीज, नाश और मांस की मनाही होती है। भक्तों को पैदल नंगे पैर ही यात्रा करनी होती है। यहां तक कि यात्रा के दौरान कंघा, तेल, साबुन आदि का इस्तेमाल भी नहीं किया जाता है। मल-मूत्र के बाद बिना स्नान किए कांवड़ को नहीं छुआ जा सकता है।
- कहां-कहां होता है जलाभिषेक?
ज्यादातर भक्त पांच जगहों पर जलाभिषेक करना पंसद करते है। इनमें वाराणसी का काशी विश्वनाथ मंदिर, झारखंड का वैद्यनाथ मंदिर, बंगाल का तारकनाथ मंदिर, मेरठ का औघड़नाथ मंदिर और पुरा महादेव शामिल है। इन शिवालयों पर जल चढ़ाना फलदायक माना जाता है। वाहीनज़ बहुत से भक्त गृह जनपद के शिवालयों में जलाभिषेक करते है।
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