आइए जानते हैं ,क्या है जगन्नाथ यात्रा? कैसे होती है इस यात्रा की शुरुआत...!

रथयात्रा में जगन्नाथ जी को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है, उनमें विष्णु, कृष्ण और वामन भी हैं और बुद्ध भी। अनेक कथाओं और विश्वासों और अनुमानों से यह सिद्ध होता है कि भगवान जगन्नाथ विभिन्न धर्मो, मतों और विश्वासों का अद्भुत समन्वय है। जगन्नाथ यात्रा पुरानी सदियों से निकाली जा रही है ।यह एक परंपरा है । यात्रा पहले आषाढ़ शुक्ल द्वितीया से शुरू होती है जो मुख्य मंदिर से निकलती है। उसके पश्चात 2.5 किलोमीटर दूर स्थित गुंडिचा मंदिर में पहुंच जाती है ।कहा जाता है कि यह मंदिर भगवान जगन्नाथ की मौसी का घर होता है और यहां रुक कर भगवान जगन्नाथ 7 दिन आराम करते हैं।
आराम करने के पश्चात उस मंदिर से एक अन्य यात्रा का शुभारंभ होता है ।जिसे बहुङा यात्रा कहते हैं। यह यात्रा आषाढ़ शुक्ल दशमी को निकाली जाती है। जो मुख्य मंदिर पहुंचती है। स्कंद पुराण मे सभी भक्तजनों के लिए साफ-साफ लिखा है कि यदि कोई भक्त सभी तीर्थों के दर्शन का फल प्राप्त करना चाहता है ,तो आषाढ़ मास में पुरी तीर्थ में स्नान कर सकता है । यह भी माना जाता है कि पूरी तीर्थ में स्नान करने से शिव लोक की प्राप्ति भी होती है। जगन्नाथ भगवान को इस रथयात्रा से लगभग 15 दिन पूर्व ज्येष्ठ पूर्णिमा पर स्नान कराया जाता है। उसके ठीक बाद भगवान जगन्नाथ बुरी तरह से बीमार होते हैं। इसी वजह से उन्हें करीब 15 दिन तक एकांतवास में रखा जाता है ।कहा जाता है कि यह भगवान के आराम करने का समय होता है। इस दौरान भगवान को सादे भोजन का भोग लगाया जाता है। और कोई भक्तजन उनका दर्शन नहीं कर पाते हैं ।इस दौरान सिर्फ पुजारी ही उनके पास रहते हैं। उन्हें औषधियों का भोग लगाया जाता है। रथ यात्रा से 1 दिन पहले ही भगवान का एकांतवास खत्म होता है।
जगन्नाथ मन्दिर में पूजा पाठ, दैनिक आचार-व्यवहार, रीति-नीति और व्यवस्थाओं को शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन यहाँ तक तांत्रिकों ने भी प्रभावित किया है। भुवनेश्वर के भास्करेश्वर मन्दिर में अशोक स्तम्भ को शिव लिंग का रूप देने की कोशिश की गई है। इसी प्रकार भुवनेश्वर के ही मुक्तेश्वर और सिद्धेश्वर मन्दिर की दीवारों में शिव मूर्तियों के साथ राम, कृष्ण और अन्य देवताओं की मूर्तियाँ हैं। यहाँ जैन और बुद्ध की भी मूर्तियाँ हैं पुरी का जगन्नाथ मन्दिर तो धार्मिक सहिष्णुता और समन्वय का अद्भुत उदाहरण है।