
आजकल तकरीबन रोज ही हमे रेडियो टीवी मोबाइल पर शहर के किसी ना किसी कोने में किसी युवक या युवती द्वारा मिट्टी का तेल डालकर नींद की गोलियां खाकर बिल्डिंग से या छत से कूदकर या फिर रेल की पटरी ऊपर लेट कर या पंखे से लटक कर आत्म हत्या कर ली की खबर मिल जाती है।
आज के बच्चे यानी कि कल के भावी नागरिको का यूं ही जिंदगी को खत्म करने का प्रयास करना किसी फूल को खिलने से पहले ही उसे मसल डालने की तरह है। आखिर ये कहां का इंसाफ है ?
आधुनिकता की होड़ में प्रतियोगिता के इस दौर में युवाओं को आगे बढ़ने के लिए मां-बाप उन्हें बहुत छोटेपन से ही तैयार करना शुरू कर देते हैं। अगर बारीकी से देखा जाए तो प्री नरसरी से ही बच्चों पर पढ़ाई का दवाब शुरू हो जाता है। उन्हें आल राउंडर बनाने की सनक मां-बाप पर सवार हो जाती है।
थोड़े बड़े हुए तो मनपसंद कोर्स करने के लिए संघर्ष शुरू हो जाता है एक कोर्स में प्रवेश के लिए अच्छी कोचिंग क्लासेस में प्रवेश चाहिए और इन सब में प्रवेश के लिए अच्छी फीस। अपनी हैसियत से परे मां बाप अपने खर्चों में कटौती कर ज्यादा फीस भरते हैं तो हर समय बच्चों पर पढ़ने का दबाव डालते हैं कभी-कभी तो यह दबाव इतना अधिक होता है कि बच्चा उसे सह नहीं पाता और आत्महत्या जैसे गंभीर कदम उठा लेता है।
अक्सर आपने ये देखा होगा कि परीक्षा परिणाम निकलने के दिनों में ही किशोरों में आत्महत्या की वारदातें बढ़ जाती हैं कारण भी अधिकतर यही होता है कि जो परीक्षा परिणाम वह स्वयं चाहता था या मां-बाप जिस परिणाम की अपेक्षा कर रहे थे वह नहीं आने के कारण बच्चा अपने आपको इतना असाहय हीन एवं अपराधी महसूस करता है की उसे जीवन को समाप्त करने के अलावा और कोई दूसरा रास्ता ही नहीं दिखाई देता है।
पढ़ाई के अलावा बेरोजगारी भी उसकी आत्महत्या कर सकती है पढ़ाई और बेरोजगारी के दौर के बीच में ही बुरी सांगत के कारण ड्रग्स व नशे की लत की ऒर मूड जाना भी आज आम बात हो चुकी है। जब इस लत से छुटकारा नहीं मिल पाता तो हार कर नींद की गोलियों का सहारा लेकर वो आत्म हत्या करने को मजबूर भी हो जाते हैं।
यही नहीं इस उम्र में फिल्मो और धारावाहिक का भी उनके दिमाग पर काफी असर पड़ता है। विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षण होना स्वाभाविक है। लेकिन पढ़ाई को पीछे छोड़कर जीने मरने की कसमें खाते हुए कभी-कभी ये मर्यादाओं की सभी सीमाएं भी लांघ जाते हैं ऐसे में यदि घर वालो ने इन्हे रोकने की कोशिश की तो मरने के लिए तो ये वैसे ही तैयार रहते हैं।
लेकिन क्या उनकी इस प्रवृत्ति को दोष सिर्फ उन पर डालकर हम मुक्ति पा सकते हैं ?शायद नहीं बच्चों की ऐसी प्रवृत्ति से ना केवल पूरा परिवार प्रभावित होता है बल्कि आस-पड़ोस घटना को सुनने वाले कई बच्चों पर इसका विपरीत असर पड़ता है। ऐसी स्थिति में माता-पिता को बच्चों को समझाना चाहिए की समस्या कभी जिंदगी से ऊंची नहीं होती उनके हल होते हैं।
परीक्षा में 1 बार फेल हुए या कम नंबर आए तो दोबारा तिबारा कोशिश की जा सकती है अगर नौकरी ना मिले तो दूसरी बार कोशिश की जा सकती है इतनी नाउम्मीदी भी अच्छी नहीं होती जिंदगी में और भी राहे होती है आगे बढ़ने के लिए।
मायूसी को कभी भी अपने ऊपर हावी ना होने कि शिक्षा ही हमें अपने बच्चों को देनी चाहिए। आज के युग में लगातार बढ़ रही इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए बहुत जरूरी है कि परिवार की इकाई में आपसी तालमेल और विश्वास और प्यार हो जिसक आभाव आज के परिवारों में खटकता है। आज की सबसे बड़ी जरूरत है बच्चों को सार्थक रचनात्मक कार्यों की ओर अग्रसर करना और इसके लिए न केवल स्कूल कॉलेज बल्कि मां-बाप की सहभागिता भी जरूरी है। सार्थक रचनात्मक कार्यों में लगा युवा आत्मविश्वास से भरपूर होता है और आत्म हत्या जैसे विचार उससे कोसो दूर होते हैं
एक मनोचिकित्स्क ने एक बार कहा था की आज की युवा पीढ़ी में बिना मेहनत किए जिंदगी के सभी ऐशो आराम रातों-रात पाने की तमन्ना भी है। मां बाप ने जो धन दौलत व शोहरत इकट्ठी की है उसका फायदा उठाना तो वह चाहता है पर उसे संभाल कर संजोकर रखने में उसकी क्या भूमिका है ?उसके क्या फर्ज है ?इसके बारे में वे सोचना ही नहीं चाहता।
युग वर्ग में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति के संबंध में एक मनोचिकित्सक ये भी कहती हैं की आज के युवाओं पर शिक्षा का काफी दबाव है कंपटीशन बहुत है परिवारों में कम्युनिकेशन तो ना के बराबर हो गया है वे बड़े तो हो जाते हैं पर स्वतंत्र रूप से कुछ करने की स्थिति में नहीं होते अपनी किसी भी भावना क्रोध या फिर प्यार पर उनका नियंत्रण नहीं होता जरा सा कुछ उनकी मर्जी के अनुसार नहीं हुआ तो उनपर फ्रस्ट्रेशन हावी होने लगता है और उन्हें लगता है कि आत्महत्या ही हल है इन सब से छुटकारा पाने के लिए। आज जरूरी है कि स्कूल कॉलेजों व घरों में बच्चों को सफलता असफलता दोनों की सच्चाई से अवगत कराया जाए।
स्कूल में फर्स्ट आते थे कॉलेज में अच्छा नहीं कर पाए एक पेपर खराब हो गया तो उन्हें लगता है अब मैं कुछ भी नहीं कर पाऊंगा यह विचारधारा गलत है उन्हें फेल हो जाने के डर से मुक्ति दिलाई जानी चाहिए। कोई भी समस्या ऐसी नहीं होती जिसका हल ना हो। ये बात उन्हें अच्छी तरह समझानी चाहिए।
साथ ही कुछ लोग और यह भी कहते हैं अगर इस समस्या की गहराई में जाए तो उसके कारण अपने आप ही आसपास मिल जाते हैं आज चारों तरफ असुरक्षा का माहौल है आर्थिक सामाजिक या भावनात्मक अनुभव की कमी और कच्ची उम्र में इनका सामना होने पर बच्चे घबरा कर मरने की सोच लेते हैं।
साथ ही हमारी शिक्षा पद्धति भी काफी हद तक इसका एक कारण है अच्छे अंको से ही अच्छे कोर्सो में दाखिला मिलता है और फिर नौकरी पाने की कासोटिया भी कम मुश्किल भरी तो नहीं होती। इससेबच्चो पर बड़ा बोझ पड़ता है मां बाप भी कॉम्पिटिशन के इस जमाने में उनसे अच्छे नतीजों की उम्मीद करते रहते हैं। यदि वे अपने प्रयासों में सफल नहीं हो पाए तो मां बाप के व्यंग बाणो और अपनी नाकामयाबी से वे घबरा जाते हैं वे आगे क्या करेंगे यह विचार उन्हें सिर्फ आत्महत्या का सुझाव देता है। आज के हालात को देखते हुए यह जरूरी हो गया है कि परिवार के सदस्य और शिक्षक बच्चे की हर बात सुने और उसे भावनात्मक सुरक्षा दे और प्यार दे और उन्हें आत्महत्या जैसे कार्य को करने से रोके।
आज इस कॉम्पिटिशन के दौर में अपना भविष्य बनाने के लिए हर बच्चे को बहुत ज्यादा मेहनत करने की जरूरत है। हर व्यक्ति चैंपियन नहीं होता लेकिन माँ बाप अपनी इछाये बच्चो पर थोपना शुरू कर देते हैं।
कुछ ऐसी बातें मां-बाप के मुंह से सुनाई देती हैं कि यदि शर्मा जी का बेटा फर्स्ट आ सकता है तो तुम क्यों नहीं उसकी ड्राइंग इतनी अच्छी हो सकती है तो तुम्हारी क्यों नहीं लेकिन तुम क्यों नहीं तुम क्यों नहीं कर सकते का कोई हल नहीं है। हमारे बच्चे का विकास एक व्यक्ति के विशेष रूप में हो तो उसकी इच्छाओं की हमे कद्र करनी चाहिए। उसकी अच्छाइयों उसकी योग्यताओं को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए तभी हम उसे डिप्रेशन जैसी परिस्थितियों और आत्म हत्या जैसे प्रयासों से रोक पाएंगे।
बड़े दुख के साथ कहना पड़ता है कि जागरूकता के स्थान पर फिल्मों और टेलीविजन ने भी हमारी युवा पीढ़ी को गुमराह किया है हर छोटी छोटी बात पर बौखलाहट, प्यार का अश्लील रूप , मारधाड़, खून खराबा चोरी डकैती यही सब कुछ सिखा रही है हमारी फिल्में हमारी युवा पीढ़ी को। साथ ही मीडिया को भी चाहिए कि वह सकारात्मक जागरूकता फैलाकर अपनी भूमिका निभाई।
आत्म हत्या जैसा बड़ा कदम उठाने से पहले इन किशोर किशोरियों को केवल अपने बारे में नहीं बल्कि अपने पूरे परिवार अपने परिवेश के बारे में एक बार ठंडे दिमाग से सोचना चाहिए उनकी ऐसी हरकत से उनके ऊपर क्या बीतेगी इसका उनके ऊपर क्या असर होगा इन सबको भी एक बार सोचना चाहिए।
आजकल तो काउंसलिंग सर्विसेस भी उपलब्ध है यदि बच्चो को मां-बाप की बातें अच्छी ना लगे ऐसे हेल्पलाइन से संपर्क कर सकते हैं। अंत में मैं आप सभी से यही कह सकती हु कि जीवन बहुत छोटा है मौत तो आनी ही है पर उसे ऐसे न बुलाये। ऐसी मौत देखने के बाद एक परिवार तिल तिल मर मर कर जीने के लिए मजबूर हो जाता हैं।